ओ मेरी मंजरी आम की
मेरे कंधे पर सिर रखकर
तुम सो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
मैं तुममें खो जाऊँ
तुम मुझमें खो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
ये पाँवों के छाले
बतलाते हैं,तुमने
मेरी खातिर कितनी
पथ की व्यथा सही है
पीर तुम्हारी हर लूँ
यह चाहता बहुत हूँ
किन्तु कंठ से मुखरित
होते शब्द नहीं हैं
मेरी शीतल चन्दन वाणी
तुम हो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
वह भी कैसा सम्मोहन था
खिंचकर जिससे
आये हम उस जगह
जहाँ दूसरा नहीं है
यह भी क्रूर असंगति
जीनी पड़ी हमी को
घर अपना है ,पर अपना
आसरा नहीं है
बीज बहारों के पतझर में
तुम बो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।