ललित निबंध श्याम सुन्दर दुबे
सूखती नदी का शोक गीत
जहाँगीर महल पर सुरमई शाम उतर आई थी और उसके शीर्ष भाग पर स्थित छोटी-छोटी छतरियों में रंग-बिरंगे बल्बों की रोशनी दिपदिपाने लगती थी। सघन हरे जंगलों के बीचों बीच किसी तिलिस्म की तरह ओरछा का इतिहास-संभ्रम अपने रंगीन ताने-बाने बुन रहा था और मैं गीतकार नई म के साथ बेतवा के सकरे पुल को पार करता हुआ ऊदी-ऊदी धूसर श्यामल चट्टानों से टकराती जल-धारा का शाश्वत किंतु एकांत संगीत सुन रहा था। तब नईम ने न जाने अतीत के बोझ से छटपटाते हुए या बेतवा के विकल्प में अपनी सुनार नदी को अनुभव करते हुए अबकी गरमी में वे अपनी जन्मभूमि फ़तेहपुर ज़रूर आएँगे। फतेहपुर उन्हें इसलिए आना है कि हटा सुनार नदी उन्हें बुला रही है। उस नीम अँधेरे में भी उनकी आँखों में सुनार नदी उतर आई थी।
पचास वर्षों से दूर मालवा में हैं । सुनार बुंदेलखण्ड की एक नन्हीं सी नदी है जो उनके भीतर इन पचास वर्षों से कुलबुलाती रही है । एक तरल स्मृति की तरह, एक चमकती-पिघलती ज्योति-रेखा की तरह। इसी जगमगाती, पिघलती, बहती नदी में वे घुलते जा रहे थे। पहले उनका शरीर उस नदी में मछली बनकर भीतर तक घुसा, फिर वे नौका बनकर उसमें तिरे, फिर वे पुल बनकर उस पर लद गएबाद में नदी उनकी स्मृतियों में लहर-लहर छहरी और उनका मन नदी बनकर बहने लगा। नदी एक प्रवाह मात्र नहीं है, नदी एक जातीय-स्मृति है, नदी एक संस्कृति है, और नदी एक भाव धारा भी है। नदी, धरती की वत्सला छाती में प्रवाहित होती दुग्धवाहिनी भी है।
नदी है तो लौटलाट कर हम वहाँ जाते हैं -अपने होने की तस्दीक करने । हमारा नदी होना वैसे ही है जैसे हम घर में होते हैं -घर के सपने बुनते । उन सपनों में ईंट-दर-ईंट घर बनाते । फिर भी हम सपने ही रहते हैं । सपनों का प्रवाह रहते हैं । नदी हमारा सपना है । मिस्टर त्रिवेदी से हटा में उनके पैतृक घर में भेंट हुई। वे विगत चालीस वर्षों से कनाडा में हैं। उन्होंने कनाडा की महिला से ही विवाह किया है। उनके बच्चे वहीं जन्मे वे छुट्टियों में अपनी कैनेडियन पत्नी के साथ अपने पैतृक घर आए थे। मैंने उनसे ढीठ होकर पूछा कि केनेडा में रहते उनको इतने वर्ष हो गए हैं, अब तो वे सपने भी केनेडा के ही देखते होंगे। मैं उनके सपनों के विषय में जानना चाहता था कि क्या उनकी, उनके सपनों में भी देश निकाला जैसी स्थिति बन गई है? उन्होंने थोड़ी देर सोचा और बताने लगे कि सपने तो सब तरह के आते हैं, लेकिन एक सपना अक्सर आता है। सुनार नदी में तैरने का और उसमें डूब जाने का। डूब जाता हूँ तो आँख खुल जाती है।
मिस्टर त्रिवेदी कवि नहीं है । वे इंजीनियर हैं। अपना सपना सुनाकर खूब हँसते हैं । उनकी केनेडियन पत्नी भी हँसती हैं और कहती हैं कि उनके हसबैंड होमसिकनेस से पीड़ित हैं। सुनार नदी उनके लिए पवित्र घर जैसी है। ए डर्टी रिवर । वे फिर ज़ोर-ज़ोर से हँसती हैं। मैं तो सपने में इस नदी में नहीं उतर पाऊँगीमिस्टर त्रिवेदी अनमने हो गए। उनकी हँसी वहीं दब गई। नई म भी अनमने हो गए थे-बेतवा के पुल के दूसरे छोर पर पहुँचकर, जब मैंने उन्हें बताया कि सुनार नदी गहरी और भरपूर नहीं रहीं। पिछले तीन-चार साल में तो गर्मियों में वह बिलकुल डबरा- डबरा हो जाती है। उसके अंजर-पंजर निकल आते हैं । नदी में से ट्रैक्टर, रिक्शे और जीप चलने लगती हैं । पूरी नदी हिलबिलान होने से बचने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। नईम की उदासी मैंने ताड़ ली थी। शायद अब वे हटा, फतेहपुर न आ पाएँ।
यह सच्चाई है कि हमारी प्राण-स्त्रोत नदियाँ अपना सौंदर्य खो रही हैं। नर्मदा का जल-स्तर घट गया है। कल ही मुख्यमंत्री का वक्तव्य आया है कि गाँधी सागर बाँध की ऊँचाई इसलिए कम की जा रही है कि अब नर्मदा में पहले जैसा जल नहीं बचा है। मुझे अचरज होता है ऋषि की उस भविष्यवाणी पर जिसमें उसने कहा था कि पृथ्वी पर से जब गंगा लुप्त हो जाएगी तब समझ लेना कि अब कलियुग की करालता ने दुनिया को दबाना शुरू कर दिया है। नर्मदा और यमुना तो बहुत पहले ही अंतर्धान हो जाएँगी। उसने अपनी फतासीनुमा भाषा में इसे नदियों का निजलोक गमन कहा है और इस रूपक को एक पौराणिक आवरण दे दिया। जब कलियुग की पाप प्रबलता बढ़ जाएगी तब ये नदियाँ अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर जाएँगी। क्या सरस्वती नदी का निजलोक गमन इस ऋषि ने देख लिया था? उस हिमगलिता को मरुधरा होते उसने किस गहन पीड़ा के साथ अनुभव किया होगा? शायद उस पीड़ा का नाम ही उस ऋषि ने कलियुग दिया है। सरस्वती कोई साधारण नदी तो थी नहीं, सांस्कृतिक जीवन के अनेक महागाथाओं को वह अपनी प्रत्येक लहर में समेटे थी। मनुष्य की अंतश्चेतना और धरती की प्रकृति परंपरा को सरस करने वाली यह नदी एक संपूर्ण सभ्यता थी, एक संपूर्ण जीवन-पद्धति थी। ऋषि ने इस नदी को विलुप्त होने से बचाने के लिए अनंत प्रार्थनाएँ की होंगी। अनंत रक्षा स्त्रोत रचे होंगे और जब नदी बच पाई होगी तो उसने नदी को अपनी स्मृति में बसा लिया होगा-वाक् की सृजनधर्मी शक्ति संपदा के रूप में। तब से सरस्वती संपूर्ण वाङ्मय बनकर आज तक अंत: प्रवाही है।
हमारी चेतना की अंत:वाहिनी बनकर सरस्वती जब से नदी नहीं रही तब से वह परा-प्रवाहिनी बन गई है । कैसे सूखी होगी इतनी बड़ी नदी। कैसे उसके सरस किनारे रेत के विस्तार में तब्दील हो गए होंगे? यह एक रहस्य कथा भी है और मानवकृत अपराधकथा भी है। सर्जक का अपनी सुपुत्री के साथ ही क्रूरतम बलात्कार है । ब्रह्मा के इस जघन्य अपराध ने भले ही उन्हें अपूजनीय बना दिया, किंतु हमसे एक नदी तो छिन गई । मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में ब्रह्मा को पूंजीवाद से जन्मी भोगवादी प्रवृत्ति का प्रतीक माना है और यह सिद्ध किया है कि भोगवाद ही बारबार सृजन उत्प्रेरिका सरस्वती से बलात्कार करता है। सरस्वती विलुप्त हई और उसके प्रतीक को हमने सुरक्षित रख लिया। आज भी वह प्रयाग के संगम में गीर्वाण नदी की तरह उपस्थित है। अब तो हमारे पास प्रतीक रचने की सामर्थ्य भी कम हो गई है। इस सृजन स्तब्धता में जो नदी आज विलुप्त होगी उसके लिए हमारे पास प्रतीक ही नहीं रहेंगे।
नदी के रूप में केवल एक जलधारा ही विलुप्त नहीं होती है। हमारी जीवन-पद्धति की एक जीवनधारा ही स्मृति शेष हो जाती है । नदी से हमारे संबंध केवल उपभोग आधा माँ है-बहिन है। नर्मदा, यमुना, गंगा केवल नदी नहीं हैं। वे पालनहार मैया हैं । लोक कभी इन नदियों के कोरे नाम नहीं लेता, वह गंगा मैया. नर्मदा मैया कहकर ही संबोधित करता है। नदी उसे पालतीपोसती है और मुक्ति भी देती है। नदियों में अस्थिविसर्जन से जुड़ी मुक्ति-भावना हमारी नदियों के प्रति अगाध आस्था का प्रतीक भाव है । अपने पूर्वजों की अस्थियाँ गले में ताबीज जैसी लटकाए हजारों यात्री प्रतिदिन प्रयाग की यात्रा करते हैं और अपने पूर्वजों की मुक्ति यात्रा पूर्ण करते हैं।
आदमी की लोक-मुक्ति करते-करते नदियाँ भी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं। अगले सभी तरह के युद्ध जल को लेकर छिड़ेंगे, यह घोषणा आज के राजनीति और समाजशास्त्री कर रहे हैं। बची-खुची नदियों के उपयोग पर खून की नदियाँ बहेंगी। कावेरी-जल विवाद, नर्मदा-जल विवाद, सतलुज जल-विवाद जितनी नदियाँ उतने जल विवाद। क्या उसी आगामी युग के बौद्धिक और राजनीतिक ट्रेलर नहीं हैं ? पड़ोसियों में अक्सर अपने घरों की मोरियों को लेकर ठनती रहती है-तुम्हारी मोरी का गंदा पानी हमारे आँगन में घुस रहा है। तुम्हारी मोरी का पानी भरा कीचड़ हमारे घर में मच्छर पैदा कर रहा है । क्या नदियों की दुर्दशा मोरियों जैसी हाने वाली है ? विदिशा के आसपास कालिदास की प्रणय-क्रीड़ालीन नदी वेत्रवती इतनी सड़-गल चुकी है कि पशु-पक्षी उसका जल पीकर मर रहे हैं। सरकार को उसके जल-उपयोग पर प्रतिबंध लगाना पड़ रहा है। नदियों की हिम्मत टूट रही है। वे धरती की सफ़ाई का संकल्प लेकर अवतरित हुई थीं, किंतु मनुष्य ने इतना कबाड़ा कर डाला है कि इतना मैला उगल दिया है कि नदियाँ यक्ष्मा से पीड़ित हो गई हैं -वे हाँफ-हाँफ कर जी रही हैं।
बीमार नदियों से हमारी ईकोलॉजी गड़बड़ा रही हैएक बार हमारी ईकोलॉजी विडंबित हई तो फिर मनुष्य को ही नदियों का नरक भोगना पड़ेगा। वे तो विलुप्तप्राय होंगी सो होंगी ही, मानव जाति के विलोपन का खतरा बढ़ जाएगा। नदियाँ तो अपने नीर के कारण ही सृष्टि का सौंदर्य हैं । उनकी निर्मलता ही मनुष्य के भीतर की और बाहर की सफ़ाई करती आई है। जिस निर्मलता को देखकर ही मन निर्मल हो जाए ऐसी निर्मलता नदियों को दृष्टि तीर्थ बनाती है। नदी की निर्मलता के दर्शन, स्पर्श और पान से जो मुक्ति भाव जनमता है उस भाव के सामने ईश्वर हे य हो जाता है। 'कबिरा मन निरमल भया जैसे गंगा नीर । पाछे-पाछे हरि फिरें कहत कबीर-कबीर ।' आदमी की निर्मल भावना ही उसे ईश्वर से बड़ा बनाती है। नई म यदि सुनार की स्मृति को अपने भीतर संजोए हुए हैं, उससे मिलने को छटपटा रहे हैं, तो यह नदी ही है जो उन्हें कवि बनाए हुए है । अब यही नदी सांसत में है-अपने प्राणों को बचाने के लिए छटपटा रही है।
यदि नदियाँ गायब होती रहीं तो हमारी अगली पीढ़ियों की नदी-स्मृतियाँ ही गायब हो जाएँगी। नदी स्मृतियों का गायब हो जाना है-कबीर का गायब हो जाना। मिलान कुंदेरा यदि कहता है कि आदमी का संघर्ष वस्तुतः विस्मृति के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है तो यह स्पष्ट रूप से इस बात को महत्व देता है कि हमारा मन गंगा जैसा निर्मल होना चाहिए। निर्मल मन में ही स्मृतियाँ कौंधती हैं । स्मृतियों की बिम्बात्मकता प्रकट होती है तथा निर्मल मन की स्मृतियाँ ही सृजन संभावना को प्रकट करती हैं। सरस्वती नदी जब वाङ्मय का प्रतीक बनती हैं, तब वह स्मृतियों की प्रतीकात्मकता का ही परिणाम होती है।
नदी हो जाने का अर्थ है-अपनी चेतना में निष्कपट हो जाना, अपनी स्मृति को जीवन के आरपार ले जाना, धरती अपनी स्मृतियों को जिन प्राकृतिक चीजों के माध्यम से सुरक्षित रखती । है, उनमें जंगल, नदी, पहाड़ सब समाहित होते हैं। धरती की स्मृतियाँ मनुष्य के मन में इन्हीं सबके माध्यम से उतरती हैं। आकृतिवान होती हैं और उसके भाव-जगत को फैलाती हैं । उसे मनुष्य होने के अर्थ देती हैं । किंतु जब मनुष्य ही उनके ध्वंस में जुटा हो, नदी का जल मल में बदल रहा हो, तब स्मतियों की रक्षा कैसे की जा सकती है ? जल तो मल बन रहा है, धीरे-धीरे दलदल बनेगा-फिर दलदल-फिर दलदल ठोस हो जाएगा। नदी ठोस हो जाएगी तो उसका अतापता ही नहीं चलेगा। आदमी की ताकत आदमी के विरुद्ध ही लग रही है। वह अपना अंतर्ध्वंस कर रहा है। स्मतिहीनता के समारंभ का यह दारुण समारोह हम सब देख रहे हैं । अब नदी हमारी चेतना के पीछे पीछे आती नहीं है । मेरी सुनार नदी कनाडा के मिस्टर त्रिवेदी के स्वप्नों में अभी भी शेष है, किंतु लगता है कि अब उसकी यह अंतिम स्मृति छटपटाहट है।
- श्री चंडी जी वार्ड, हटा, दमोह [म.प्र.]
- 470775, मो. 94254 05939