स्तम्भ : गीत-गंध -पहला अन्तरा / जनवरी-मार्च 2020/16


स्वातंत्रोत्तर हिन्दी छान्दसिक काव्य के सशक्त हस्ताक्षर-दिनेश शुक्ल 


       दिनेश शुक्ल जी से भले ही मेरा व्यक्तिश: परिचय न हो पर, उनकी रचनाओं से गुज़रते हुये मेरी कल्पनाओं में उनका जो अक्स उभरता है वो एक ऐसे संवेदनशील कुशल चितरे का है जो किसी ऊँची चोटी पर बैठकर प्रकृति और जीवन के तमाम रंगों और हलचलों को अपनी सूक्ष्म और पैनी दृष्टि से पकड़कर उन्हें शब्दों की सुई में पिरोकर नित नये छन्दों की मालाओं से साहित्यिक वातावरण को अनुप्राणित कर रहा है। भोर की ओस भीगी ताज़गी से स्नात ये रचनायें अपनी गहन भाव प्रवणता सहजता व चित्रमयता से चित्त को अनायास ही बाँध लेती हैं।


               पिछले सात दशकों से काव्य सृजन में साधनारत दिनेश शुक्ल जी कविता में ख़ुद की परम्परा को गढ़ने वाले कवि हैं। मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले में जन्में और पले बढ़े दिनेश शुक्ल जी ने अपनी लम्बी सृजन यात्रा में गीत के कई उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे और स्वयं को समय के साथ जोड़ते-मोड़ते व निखारते चले गये। उन्होंने छान्दसिक कविता की प्रायः सभी विधाओं गीत, ग़ज़ल, मुक्तक एवं दोहों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और दोहा छन्द में उन्होंने विशेष ख्याति अर्जित की, समकालीन कविता में दोहा छन्द को पुनजीवित करने वाले रचनाकार के रूप में उनकी पहचान बनी। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से लेकर देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनायें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। दिनेश जी के कई संग्रह प्रकाशित हो चके हैं. जिनमें पानी की वैसाखियाँ. जागे शब्द गरीब (दोहा संग्रह), धूप का सफ़र, मौसम तनी गुलेल, तितलियाँ सलीखों पर (ग़ज़ल संग्रह) और सूखी नदी की मछलियाँ (गीत संग्रह) उल्लेखनीय हैं।


                    किसी भी रचनाकार के कृतित्व पर चर्चा करते समय उसके मूल स्वर, मूल रचना विधान और मूलवर्ण्य को समझना ज़रूरी होता है, क्योंकि यही वो मूलतत्व होते हैं, जिनसे वह किसी भी रचना की सृष्टि के लिये अनुप्रेरित होता है। दिनेश शुक्ल जी की सम्पूर्ण गीत सर्जना का मूल स्वर 'प्रकृति' है। यानी कि अनुभूत जीवन सत्य की अनुभूति के वास्ते वे प्रकृति को माध्यम बनाते हैं, ये प्रकृति कभी आलम्बन कभी उद्दीपन और कभी विभावन व्यापार के रूप में प्रकट होती है। उदाहरण तौर पर एक गीत दृष्टव्य है---


                       हल्दी भरे हाथ उबटन के/ बरसे बादल यह सावन के


                       धूप नदी के किस्से कहती/ इक लड़की गुमसुम सी रहती


                        द्वारे अक्षर रोली वाले/ हँसी ठहाके, बोली वाले


                         झरे निबौली फूल नीम के/ समय पढ़े दोहे रहीम के


                            इन्द्र धनुष सी ये सौगातें/ छलकी जल से भरी परातें


                         ऋतुयें पढ़तीं ख़त मौसम के/ इक लड़की बारिश सी हँसती.


       इस सहज-सरल गीत में प्रकृति का मानवीकरण नहीं वरन ऐसा समावेशीकरण है कि उसे अलग करके नहीं देखा जा सकता। प्रकति के कोमल बिम्बों, प्रतीकों के माध्यम से सौंदर्य भावबोध जगाता यह गीत कितना सम्प्रेषणीय बन पड़ा है। दिनेश शुक्ल प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य की रूपराशि के जादुई सम्मोहन से स्वयं को बिलग नहीं कर पाते हैंउन्होंने स्वयं अपने वक्तव्य में लिखा भी है-'प्रकृति की अप्रतिम सौंदर्य राशि ने मुझे सदैव ही अनजाने में बड़ी गहराई के साथ प्रभावित किया है। एकान्त के क्षणों में जब भी निसर्ग से मेरा मौन साक्षात्कार हुआ है, इसके दृश्य मुझे अत्यंत अधुनातन और स्नेहसिक्त लगे हैं, मेरी भावनाओं को इससे निरंतर यथार्थोन्मुखी अभिव्यंजना की ताज़गी मिली है। मैंने एक सर्वोपरि सुखानुभूति का स्वाद पूरी तन्मयता के साथ इसके सान्निध्य में चखा है। इसकी नि:शब्द अनुपम भाषाशैली मेरी अभिव्यक्ति के लिये प्रेरणास्पद रही है। इसी महत्वपूर्ण सोच को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने दोहों में प्रकृति से जुड़े बिम्बों के मिथकीय प्रतीकों का प्रयोग निरंतर अपने लेखन में किया है। कमोवेश इसे मेरी कमज़ोरी या विवशता कुछ भी मान लीजिये।


             शुक्ल जी की यही कमज़ोरी उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी ताकत है। चाहे गीत हो, ग़ज़ल हो या दोहे हों, प्रकृति की सौंदर्यमयी छटा सर्वत्र बिखरी पड़ी है। प्रकृति उनके भावों की जमीन को आधार भी देती है, और भावों का उत्स भी है। कुछ दोहे-दृष्टव्य हैं --


मेघदूत कहते कथा सुनते विंध्य पठार


धीरे-धीरे बह रही, क्षिप्रा की जलधार।


खुले मदरसे धूप के बड़ पीपल की छाँव


धूल उड़ाता आ गया, मौसम नंगे पाँव।


      दिनेश शुक्ल जी के सृजन संसार में ऐसी रचनाओं की भरमार है, जिनमें प्रकृति के अन्यतम बिम्ब दर्शनीय हैंइन गीतों में देखिये-अलग-अलग बिम्बों, प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने 'धूप' के कितने चित्र हमारे सामने बिखेरे हैं, हर बार 'धूप' एक नये रंग और अर्थ में हमारे मन को अपनी छुवन से गुनगुनाने लगती है- 


ओढ़ उदासी की चादर को


धूप सीढ़ियाँ उतर रही है।


अँजुरी-अँजुरी प्यास रेतिया


चुटकी-चुटकी बिखर रही है।


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पर्वतों के शुभ्र पाटल शिखर को छूकर


धूप उतरी/बैंजनी उस झील के नीले किनारे.


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मुट्ठी में ले कुमकुमी उजाले किसने ये धूप में बिखेरे


मेंहदिया मन हो या कपूरी संदली हवा को भोर टेरे 


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तेज़ धूप में/हाँफ रहे हैं/सुघड़ कपूरी दिन


चिंगारी से रहे सुलगते सुघड़ अंगूरी दिन।


जीवन जलती धूप सा, सुख-दुख के ये गाँव।


सपने दौड जा रहे उस पर नंगे पाव।


इसी तरह उन्होंने नदी, जल, पर्वत, जंगल, भोर, दुपहरी, शाम, ग्रीष्म, शीत, बसन्त, फागुन, पुरवा, पावस आदि तमाम प्रकृति के रंगों और रूपों को नये-नये बिम्बों, मिथकों प्रतीकों के माध्यम से नये अर्थों और अनुभूतियों के साथ अभिव्यक्त किया है।


             लेखन वही कालजयी होता है जो अपने समय और समाज को 'स्वर' देता है। एक 'रचनाकार' अपने समय, समाज और मानवीय संघर्षों के प्रति अधिक संवेदनशील और सजग होता है, वह समय की नब्ज को टटोलता है, सामाजिक परिवर्तनों के उथल-पुथल को नापता है और उसमें रहने वाले आम आदमी की ज़मीनी कठिनाइयों को बड़ी बारीकी से पढ़ता है। पीड़ा, करुणा, दुःख-दर्द की इन्हीं अनुभूतियों को शब्दों में गढ़ता है। समकालीन लेखन मानवीय मूल्यों का लेखन है। दिनेश शुक्ल जी की रचनायें आज के त्रासद समय को आइना भर नहीं दिखातीं, वरन मानवीय मूल्यों की पुनस्थापना के लिये संकल्पित दिखाई देती हैं। 


आज के रुखे, लयहीन, दिग्भ्रमित समय को लेकर निराशा का भाव उनकी तमाम रचनाओं में प्रतिबिम्बित हुआ है।


वक्त पीटे इक मुनादी


धूप में, दिन ने सलीबें


पीठ पर अपने उठा ली


मौसम तनी गुलेलों जैसा गिरे कबूतर जैसे दिन


किससे कहते घर में बाबा बरसे पत्थर जैसे दिन 


 अंगारों से भर गयी, फूलों सी डल झील


आम आदमी हो गया, दुःख की इक तहसील


 सामाजिक असंगतियों और विद्रूपताओं को वे बड़ी सहजता से अपनी ग़ज़लों में अभिव्यक्त करते हैं-


वो पानी की किताबों में, नदी का नाम लिखते हैं


जिन्होंने बेच दी बारिश, उन्हीं के घर गया मौसम।


नगरीय कोलाहल और भीड़-भाड से भरी कत्रिम जिंदगी से ऊबा हआ मन गाँव की शीतल छाँव को याद कर भावुक हो उठता है-


छोड़ आये दो भरी आँखें जले कुछ टिमटिमाते दीप/


पीछे छोड़ आये


याद आये घाट मंदिर, प्रार्थना के स्वर


कश्तियों के पाल, धीमे चप्पुओं के गीत


ओस भीगी कुमकुमी वह शाम


हवा में काँपते रुमाल, तुम्हारी नेह भींगी प्रीत


छोड़ आये वह विदा के अश्रु भीगे पल


लिखते रहे हैं जो हृदय में टीप/ पीछे छोड़ आये.


आज का गीत सामाजिक सरोकारों का चेतन स्वरूप है, जो समाज की अन्तिम इकाई तक को अपने कथ्य में समेट कर व्यंजनात्मक कलेवर में प्रस्तुत कर देता है। नगर हो या गाँव दोनों की आंतरिक पीड़ा उन्हें मर्माहित करती है- फूल से वो दिन हिराने पास के उस गाँव में।


खुले चौकी और थाने पास के उस गाँव में. 


गाँव भी बनने लगा है, अब सियासत की गली


धर्म की अपनी दुकानें, पास के उस गाँव में।


ऐसे अनेको गीतो के माध्यम से दिनेश जा ने अपन 'समय' को स्वर दिये हैं। उनके स्वरों में केवलवो आक्रोश और उग्रता नहीं है, वरन भीतर तक भेदने वाला दर्द है और ला दद ह आर आने वाले कल को सँवारने का संदेश भी-


शोक गीतों के अँधेरों से भरे इस दौर में


बन सके तो एक टुकड़ा यह हँसी का रोपिए


ज़िंदगी की चाहतों से भरे इस दौर में


बन सके तो प्रेम की बारह खड़ी को रोपिए। 


             बिम्ब और प्रतीक जहाँ रचनाओं को नये सौंदर्यबोध और अर्थबोध से जोड़ते हैं, वहीं पाठक से संवाद स्थापित करने में सेतु की भूमिका निभाते हैं।


            लेखन में बिम्बों, प्रयोगों की शिल्पगत विशिष्टता ही लेखक को लेखन के क्षेत्र में अलग पहचान देती है और यह पहचान उसके प्रयोगों एवं बिम्बों की सार्थकता पर निर्भर करती है।


                   इस दृष्टि से दिनेश शुक्ल जी ने नये प्रतीकों बिम्बों के ज़रिये अपनी अभिव्यक्त प्रतीतियों को सफ़लतापूर्वक साधते हुये उसे पाठकों तक बहुत सहजता से सम्प्रेषित किया है। अनेक आँचलिक बिम्बों मान्यताओं और लोक प्रचलित अनुष्ठानों को सहेजे उनके गीत सहज-सरल प्रवाहपूर्ण और सम्प्रेषणीय भाषा में उपलब्ध हैं, जिनकों पढ़ने की उत्कंठा पाठक के मन में सदैव बनी रहती है।


  ___ वै नैसर्गिक दृश्यों को अपनी अनुभूतियों में पिरोकर नूतन एवं संवेदनीय कहने के साथ प्रस्तुत करते हैं और कथ्य को नितान्त स्वाभाविक व सहज रूप से आम-आदमी के परिवेश से प्रतीक लेकर बिम्बात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं--


आखर-आखर घुनी किताबें, फटी जिंदगी की जिल्दें


शाम-सुबह उस पर सुख-दुख के पढ़ते रहे ककहरे लोग


लोग आइनों से चमकीले, कैद अँधेरों के घर में


डोरी-डोरी रेशम गाँठे, पीले, लाल, सुनहरे लोग.


 गीत के घर/धूप की क्या/मख़मली चादर बिछी है


यह कुसुम्भी भोर/ कपड़े डालती है अलगनी पर 


            उनकी रचनायें नयी विषय वस्तु, नये मुहावरे, नवीन लय, छन्द, और कहन के माध्यम से पाठकों से सीधा संवाद स्थापित करती हैं।


     दिनेश शुक्ल के गीतों की ज़मीन उनका भोगा हुआ निजी यथार्थ है, उनकी संवेदनायें आयातित नहीं है, उनका अनुभव फ़लक इतना विस्तृत है कि उसमें लोक चेतना, प्रकृति, समाज और जीवन के सारे ताने-बाने समाहित हो जाते हैं। मानवीय जीवन की कठिनाइयों, त्रासदी और संवेदनाओं से समाज को जोड़ने के लिये उन्होंने व्यंग्य का टा दामन भी थामा और लम्बे समय तक मंचों के माध्यम से उसे आम आदमी से जोड़ते रहे।


      यथार्थ बोध और जीवन की दाहक स्थितियों से साक्षात्कार कराता उनका कवि मन जहाँ व्यथा की कथा को स्वर देता है, वहीं अपने मन की कोमल अनुभूतियों, प्रेम, शृंगार, स्मृतियों और कल्पनाओं के उद्गारों को भी बड़ी कलात्मकता कुशलता और निपुणता से अभिव्यक्त करता है। पर उसका प्रेम प्रकृति के रेशमी-झीने पर्दे से अपनी झलक भर दिखाता है, कभी अनावृत नहीं होता।


 फूल सपने तितलियों के पर ख़ुशबुओं के मौन हस्ताक्षर


स्वप्न बनुता आँख का काजल बंद पलकों से छलकता जल


शोख तपती उम्र की यह धूप सोनपंखी शरबती यह रूप 


            कविता तभी चिरस्थायी हो सकती है, जब वह छन्दोबद्ध हो। साथ ही छंद लेखन की व्याकरण सम्मत प्रामाणिकता को भी रेखांकित करता है। वह लेखक को अनुशासन एवं संतुलन देता है। दिनेश जी कविता में छंद की अनुशासनबद्धता के पक्षधर हैजिसे उन्होंने अपने वक्तव्यों में स्वीकार किया है-'छन्द की रुझान मेरे अपने लिये आज भी बेहद महत्वपूर्ण है। मैं यह स्वीकारता हूँ कि दर्द की, पीड़ा की, आँसुओं की, जिंदगी के सपनों की बात छंद के द्वारा जब जब भी अभिव्यक्त की गई है, वह वर्ग जिसके लिये हम लेखन कर रहे हैं, बिना किसी अवरोध के सीधे रचना की ज़मीन से जुड़ा है, इसलिए छन्द मेरी नज़रों में आज भी विशिष्ट है।'


            दिनेश जी ने नव्य प्रतीकों, बिम्बों और शब्द विन्यास से अपनी रचनाओं की अलग पहचान बनायी है। उनके गीतों में कथ्य संवेदना के समानान्तर प्रतीक ख़ुद सहजता से चले आते हैं । दिनेश जी के गीतों की भाषा उनका शब्द चयन बहुत सटीक और प्रभावशाली है, शब्दों में अन्तर्निहित अर्थवत्ता और ध्वन्यात्मकता संगीत उत्पन्न करती है।


          आंचलिक शब्दों का प्रयोग गीतों में नैसर्गिक सौंदर्य संस्कार और आत्मीयता का भाव उत्पन्न करता है। परात. बरौठे, अरगनी जैसे तमाम आंचलिक शब्दों का सौंदर्य उनकी रचनाओं में विद्यमान है और अतध्वनि का मधुर संगीत उनकी रचनाओं में मुखरित है।


रेत, सीपी, शंख, कश्ती और ये सूने नदी के घाट


भोर का धुंधला कहासा दर उडती पंछियों की बाट।


मुट्ठियों में फिर/सिसकती वंचना


स्मृतियों के उठ रहे हैं हाट। 


          यह सच है कि छायावाद के पश्चात प्रकृति को श्री दिनेश शुक्ल जी ने गीति काव्य में बड़ी तन्मयता से समादृत किया है। प्रकृति में उनका महाप्राण स्वर समाहित है, जिसके आलाप से वे आवश्यकतानुसार तरह-तरह के साँचों, तरहतरह के छन्दों और तरह-तरह के वस्तुशिल्पों के सहारे लयात्मक विविधता के साथ शब्द ध्वनियों की तरंगें उठाते हुये समुचित बलाघातों द्वारा अपने गीत संसार में सृजनरत हैं। दिनेश शुक्ल जी की सृजन सम्पदा परम्परा की ज़मीन पर नवीनता की लहलहाती फ़सल हैं, जिसकी ख़ुशबू समय के अनेक सोपान तय करेगी।


- 6, साँई हिल्स, कोलार रोड,


भोपाल (म.प्र.)-462042


मो. 9893104204, 87705 89646