नीरज का पृष्ठ -पहला अन्तरा / जनवरी-मार्च 2020/5



विश्व चाहे या न चाहे


लोग समझें या न समझें,


आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे। 


हर नज़र ग़मगीन है, हर होंठ ने धूनी रमाई,


हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई,


ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में


कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई,


फिर दियों का दम न टूटे,


फिर किरन को तम न लूटे,


हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे


विश्व चाहे या न चाहे.....


हम नहीं उनमें हवा के साथ जिनका साज़ बदले,


साज़ ही केवल नहीं अंदाज़ औ' आवाज़ बदले


उन फ़कीरों-सिरफ़िरों के हमसफ़र हम, हम उमर हम,


जो बदल जाएँ अगर तो तख्त बदले ताज़ बदले,


तुम सभी कुछ काम कर लो, हर तरह बदनाम कर लो,


हम कहानी प्यार की पूरी सुनाकर ही उठेंगे।


विश्व चाहे या न चाहे....


नाम जिसका आँक गोरी हो गई मैली सियाही,


दे रहा है चाँद जिसके रूप की रोकर गवाही,


थाम जिसका हाथ चलना सीखती आँधी धरा पर


है खड़ा इतिहास जिसके द्वार पर बनकर सिपाही,


आदमी वह फिर न टूटे,


वक़्त फिर उसको न लूटे,


ज़िन्दगी की हम नई सूरत बनाकर ही उठेंगे।


विश्व चाहे या न चाहे... 


हम न अपने-आप ही आए दुखों के इस नगर में,


था मिला तेरा निमंत्रण ही हमें आधे सफ़र में,


किन्तु फिर भी लौट जाते हम बिना गाए यहाँ से,


जो सभी को तू बराबर तोलता अपनी नज़र में,


अब भले कुछ भी कहे तू,


ख़ुश कि या नाखुश रहे तू,


गाँव-भर को हम सही हालत बताकर ही उठेंगे,


_ विश्व चाहे या न चाहे...


इस सभा की साज़िशों से तंग आकर, चोट खाकर


गीत गाए ही बिना जो हैं गए वापिस मुसाफ़िर


और वे जो हाथ में मिज़राब पहने मुश्किलों की


दे रहे हैं ज़िन्दगी के साज़ को सबसे नया स्वर,


मौर तुम लाओ न लाओ,


नेग तुम पाओ न पाओ,


हम उन्हें इस दौर का दूल्हा बनाकर ही उठेंगे,


विश्व चाहे या न चाहे...