आत्म कथ्य -दिनेश शुक्ल -पहला अन्तरा / जनवरी-मार्च 2020 / 25


रचना कर्म-उदासी की अग्नि यात्रा गीत-मनुष्य की मुक्तिकामी चेतना का संवाहक 


    गीत, ग़ज़ल, दोहा, कविता, स्मति, प्रेम, करुणा, संवेदना का वह राग तत्व है, जहाँ भाषा अपनी सम्पूर्ण विकलता के साथ अभिव्यक्त होती है। इस यांत्रिक रोबोट युग में, जहाँ एक ओर मुद्रा, पूँजी बाज़ार, उपभोक्ता संस्कृति, मानवीय संबंधों को वस्तु, पदार्थ, चीजों एवं सुविधा के अंकगणित में तब्दील कर रहे हैं। वहाँ दूसरी तरफ संबंधों की जटिलता, स्वार्थपरक दृष्टिकोण, समाज से समाप्त होती हुई संवेदनशीलता, हिंसा, भय, आतंक, लोहा, नमक एवं बारुद के नए समीकरण, भ्रष्ट व्यवस्था, रोज़मर्रा जीवन की दारुण स्थितियाँ, उसके घात-प्रतिघात प्रतिक्षण मनुष्यता के सम्मुख खड़े रहते हैं। मेरी संवेदना का यही आत्म-संवाद करुणा के शाश्वत प्रवाह गीत के रूप में प्रतिभासित होता रहता है..


        रोटी का लघुतम स्वप्न, गँवई-गाँव के लोक-जीवन के देशज-संस्कार, प्रकृति की नैसर्गिकता, तितली, फूल, जुगनू, बच्चे, नदी, खेत, घर, आँगन, मानस के छंद, चौपालों के रतजगे, मंदिर की शंख ध्वनि, आरती, अजान के स्वर, माँ-पिता, भाई-बहन, दादी, नानी की आत्मीय दुनिया, परियों की कहानी, महानगरीय त्रासदी, समाज में जो कुछ घटित हो रहा है शुभ, अशुभ, प्रकारांतर से वह सारे जीवनानुभव, मेरे रचना के संसार को रचते हैं।


                   रचना कर्म मेरे लिये अपने अंदर बेपनाह फैली बेचैनी, उदासी की अग्नि यात्रा. अपने जिस्म में अपनी रुह के कद को टटोलना, उसके खालीपन को नापने जैसा है। उन दस्तकों की गूंजों को बार-बार सुनना जो मेरे मन के एकाकीपन में अंतर्निहित हैं। रंग, स्वप्नों के रेशमी सम्मोहन, कोई तरल राग स्पर्श भी मेरे सृजन कर्म की भंगिमा बनता है।


              अपने लेखन से गुज़रते हुए मेरी अंतस-चेतना ने साधना के उन महत्तम शिखरों की परछाँई की अनुभूति भी की है। जहाँ शब्द की पारदर्शिता में समय तिरोहित होकर रह जाता हैजहाँ शब्द का अपना एक अनहद नाद होता है। करुणा का अपना एक अलौकिक संसार होता है। साधक गहन अर्थों में अपनी सारी निसंगतता के साथ व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ता है। पूर्णतः आस्तिक बनता है, शब्द ब्रह्म की इस सत्ता में पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, तारे, सौरमंडल, संपूर्ण ब्रह्माण्ड, ऐन्द्रिय संवेगों के प्रदीप्त क्षणों में सिमट कर रह जाते हैं। साधना के इन एकांत क्षणों में सम्पूर्ण धार्मिकता, सहिष्णुता के नए परिदृश्य में लोक रंजित होती है, जिसके मनष्य एवं मनुष्यता ही शिखर बिंदु होत है।


          गीत ने मुझे अपने एकांतिक क्षणों में इस आत्मबोध के सरस रूपांकन से जोड़ा भी है। अनुभूति के इस कारुणिक सूर्य प्रकाश से में एक नहीं अनेकों बार अभिभूत, सरोबार हुआ हूँ, जो मेरे रचनाकार की सामाजिकता एवं सामूहिकता को रचना के मूल सरोकार से जोड़ते हैं। उसकी आस्था के विचारों की सापेक्षता का प्रतिबिंब बनते हैं। गीत आज यथार्थ के वैचारिक धरातल पर काव्य की अधुनातन प्रयोगधर्मी विधा है,इसने अपने काव्य पक्ष की अंतर्वस्तु में, नयी भाषा, शिल्प, छन्द, बिम्ब विधान एवं समसामयिक रचनाधर्मिता का सफ़लतापूर्वक निर्वहन किया है।


         इसमें अपने आधुनिक काव्य बोध में लोक चेतना, जनधर्मिता, शहरी यांत्रिकता, भूख, गरीबी, रोटी, भीड़, उत्पीड़न, शोषण, साम्प्रदायिकता, आक्रोश, हिंसा, हत्या, कप!, आतंकवाद, विद्रूपता, दुख, मुश्किल कठिनाइयाँ, शहर, मॉल, कारखाने, महानगर की जटिलताओं के साथ आधुनिक उपादानों में, घर, परिवार की रागात्मकता रिश्तों के बीच स्वार्थपरता, वस्तुवादी, अर्थवादी, सोच की पारिवारिक व्यवस्था. मानसिकता का गहन जीवनानभवों के साथ विश्लेषण मिलता है.


              इसमें अपने सामाजिक संघर्ष की नई भूमिका में युगधर्मी समस्त चुनौतियों को संवेदना के धरातल पर स्वीकार भी किया है, यह अपने जुझारू वैचारिक पक्ष में, मनुष्य की अस्मिता, प्रेम, आदमीयत शुभ, अशुभ, मूल्यहीनता, वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, किसान, बैंक, कर्जा, सूखा, बाढ़, अकाल, आत्महत्या, खेत, खलिहान, प्रकृति, चुनाव, गाँव एवं ग्रामीण लोक संस्कृति का गहरे समय विवेक के साथ चरित्र चित्रण करता है।


           गीत छान्दस कविता में अपनी संरचना में छंद विधान के विभिन्न स्तरों में, टेक, अन्तरा, समापन की रचना प्रक्रिया को समर्थता के साथ रेखांकित ही नहीं करता, अपितु यह अपनी निजता में, विचार विमर्श में, आत्म संवाद की उदात्त परम्परा को, उसके सांस्कृतिक पक्ष को, पुरातनता को, आधुनिक संवेदनाओं की वैचारिक ज़मीन पर, युगानुकूल स्वरूप भी प्रदान करता है.


                  यह अपनी प्रयोगधर्मिता में, परिवर्तनों के समस्त सरोकारों को जन समस्याओं को, गहरी सम्प्रेषणीयता, आधुनिक संवेदनाओं, अनुभूतियों के साथ रचना के धरातल पर पनः प्रतिष्ठित करता है।


                          यह अपनी नई विषय वस्तु, नये मुहावरे, नवीन लय, नये छंद की विकास यात्रा में, कहन, पठनीयता व जनसंवाद धर्मिता का समन्वित रूप है।


                    अच्छे लेखक की प्रतिभा इसी में होती है कि वह अपनी शैली का इस्तेमाल अपने विचार को किसी अभ्यस्त धावक के भव्य प्रदर्शन की तरह प्रस्तुत करने के लिए करता है। (वाल्टर बेंजामिन)


                     उत्कृष्ट साहित्य रचना, वह गद्य में हो या पद्य में,अपनी सार्वभौमिकता, ऐतिहासिकता, तब ही रेखांकित कर पाती है जब उसकी सोच का मूल आधार जनोन्मुखी चेतना हो, उसकी चिंताओं में अपने समय का सामाजिक उत्पीड़न, आर्थिक विषमता, सामयिक समस्याएँ हों देश, काल, समाज, संस्कृति से जुड़े सार्वकालिक जीवंत प्रश्न हों, तभी कोई रचना अपने समय का विमर्श बन सकती है। किसी महतीय संघर्षधर्मी चेतना के अभाव में ऐसी समकालीन सृजनात्मकता, जो किसी विद्रोही भूमिका का मूल स्वर नहीं बनती वह साहित्य के हाशिये से अपने आप ख़ारिज हो जाती है। उसकी साहित्यिक यात्राओं का दाख़िला एक समय सीमा तक ही सीमित रहता है। 


समकालीन छान्दसिक कविता में गीत अपने सकर्मक दृष्टिकोण के कारण सर्वसाधारण, जनचेतना, विभिन्न आयामी संवेदना की प्रस्तुति के कारण, आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। गीतों की प्रासंगिकता का फ़लक अपने कला वैभव की एक उन्नत समृद्ध दुनिया की हमें वैचारिक यात्रा कराता है। रूबरू कराता है, उस जनपक्षीय त्रासदी से जो दबे कुचले पिछले समाज का सबसे लघुतम हिस्सा है। जिसका न कोई स्वर है, जिसका न कोई सपना है। भूख की तपिश झेलता जो रोटी के अंक-गणित को, समय की धप में नंगे जिस्म बैठा हल कर रहा है। जिसके पसीने की बूंदे खेत में बीज बनी हैं। कारखानों में मशीनों की घड़घड़ाहट बनी है। संसद की बहस से लेकर समस्त सभी आदिम सोचों का वह औज़ार बना हुआ है। भ्रष्ट व्यवस्था, समय, पूँजी, सत्ता जिसे चप्पलों की तरह इस्तेमाल करती है। गीत ऐसे ही दुखों के बीज से अंकुरित हुए हैं। जिसका रचना संसार अपनी जनपक्षधरता के कारण ही कविता में अपनी विशिष्ट वैचारिक दीप्ति बनाए हुए हैं। गीत, भूख, गरीबी, रोटी के सलीबों को यदि अपनी पीठ पर उठाए हुए हैं, तो दूसरी तरफ हादसों के जंगल से भी गुज़र रहे हैं, जहाँ हत्याएँ हैं, अफवाएँ हैं, कप!, दहशत चीखें डर की एक ठंडी जमी हुई झील है। जहाँ आंतक आज भी एक बाज की तरह चिड़ियों पर झपट्टा मारता है। जहाँ कयूं की सीटी रात के सन्नाटे में पुलिस के बूटों की आवाज़ बनकर गूंजती है। मौत के दहकते शोले जलते घर बिखरे मलबे के बीच गीत आज भी पृथ्वी की हँसी को बच्चे, फूल, तितली की आँखों में तलाश रहा है। सच्चाइयों के तिलिस्म में सपने की मशाल जला रहा है। अपनी सरलता, सहजता एवं अद्भुतता के कारण वह वक्त के रवैयों की नब्ज टटोल रहा है। कमोबेश जिंदगी की तमाम ग़लत फ़हमियों के बावजूद नया गीत वक्त की सख्त सच्चाइयों का चेहरा बना हुआ है.


            मुद्रा संस्कृति वाले इस पेट्रोलियम युग में जब उदारीकरण टेक्नोलॉजी और बाजारवाद ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में, पूँजी की सत्ता का अपना एक अलग साम्राज्यवाद रच रखा है, ऐसे जटिल समय में कला, साहित्य, संस्कृति, समाज सब मुक्त बाज़ार का हिस्सा बने हुये हैं। गीत भी इससे अछूते नहीं है । गीत को विज्ञान की भाषा के बरअक्स अपनी सोच गढ़नी पड़ेगी तभी वह विश्व समय विवेक की साझेदारी में अपनी एक सक्रिय बौद्धिक भूमिका निभा सकता है। जब तक किसी रचना की निजता में उसकी अंतर दृष्टि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं होता है, तब तक वह रचना अपने समय की विकलता का प्रभा मंडल नहीं बन सकती। कविता हो या कला की कोई विधा हो यदि वह अपनी वैभाषिक संस्कृति, भाषिक विषयों की जानकारी नहीं रखती, तो वह रचना शब्दावलियों का कोष तो बन सकती है, प्रेम, प्रकृति जैसे सरल सामान्य विषयों को अपने कथ्य में प्रस्तुत तो कर सकती है, पर विश्व सोच की केन्द्रीयता को छू नहीं सकती। सूचना क्रांति की इस सदी में जब बाज़ार-वाद विज्ञापन को एक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। समय की सारी परंपराएँ उसके मूल्यों को ध्वस्त कर रही हैं। उपभोक्ता संस्कृति सब कुछ लील जाने पर उतारू है। चीजें हर क्षण अपना वजूद खोती जाती हैं सरसरी नज़र से देखें तो रोज़-बरोज़ विज्ञान चीजों और वस्तुओं का नवीनीकरण करता रहता है। यह नवीनीकरण की प्रक्रिया उत्पादन के हर क्षेत्र में घटित होती रहती है। विकासशील एवं पिछड़े देशों को 'बाज़ार' ने अपनी उपभोक्ता संस्कृति का निवाला बनाया है। नये-नये ब्रान्ड छोटे लघु व्यवसाय को निगलते चले आ रहे हैं एवं आर्थिक विषमता का चक्रव्यहू जिसमें गरीबी, भूख और रोटी कैद होकर रह गयी है, 'बाज़ार' का, 'पूँजीवाद' का सिक्का बन गई है। गीतकार को विज्ञान की इस ख़तरनाक सच्चाई से भी वाकिफ होना पड़ेगा।


             कविता के परिदृश्य पटल पर छंद अपनी लयात्मकता, कथ्य वस्तु, बिम्बधर्मिता के कारण पाठकीय संसार में सदैव से लोकप्रिय रहा है छांदसिक कविता की यह शब्द चित्रात्मकता ही उसे अपने पाठक वर्ग की सौंदर्याभिरुचि से जोड़ती रही है। उसकी काव्यात्मकता को अलग ढंग से रूपायित करती रही है। समकालीन गीतों में इस बिम्ब धर्मिता की अनेक छवियाँ एवं रूपांतरण हैं यह बिम्ब यदि प्रकृति की फैली अप्रतिम रूप राशि का ख़ज़ाना है, जहाँ ऋतुएँ अपनी सम्पूर्ण सुंदरता के साथ पृथ्वी के प्राकृतिक वैभव को ऐश्वर्य को खुले हाथों से लुटा रही हैं। जहाँ नदी पहाड़, झरने, पेड़-परिन्दे, यहाँ तक कि नन्ही सी हरी दूब का भी अपना संसार है एक अलौकिक दुनिया है। जिसमें शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श का जादू जगाते हैं। जहाँ पानी की महराब पर मौसम के ख्वाब हैं एवं पुरइन के पात कोमल बूंदों के आघात को सह रहे हैं।


           जहाँ बाँस वन में हवाएँ सीटियाँ बजा रही हैं, घने बादलों से घिरे आकाश बीच, बिजलियाँ अपनी चकाचौंध रोशनी से अठखेलियाँ कर रही हैं, खुशनुमा मौसम दिन की आवारगी कर रहा है। परवतों के शुभ्र पाटल शिखर छूकर धूप बैजनी झील के नीले किनारे टहल रही है। इन्द्रधनुष के रंग बिखेरे दिशाएँ सतरंगी हो गई हैं, चंदनी परछाइयाँ हाथ में कजरौटा लिए एकांतिकता के क्षणों से घिरी दरपन में अपने सलोने रूप को निहार रही हैं। धूप अटारी पर खड़ी गीले बाल सुखा रही है। समय के पृष्ठ पर मोर पंखिया स्मृतियाँ प्रीत भरी ऋचाएँ लिख रही हैं । नदियों के बजते हुए चूड़े पर्वतों के मन को अधीर कर रहे हैं। रातों के जलते हुए अलाव चौपालों पर रतजगे करते हुए आल्हा के छंद पढ़ रहे हैं। विंध्याचल के शिखरों पर शाम सिन्दूर के झरने की तरह गिर रही है, यहाँ अजंता सा हृदय खजुराहों की देह लिए प्रणय निवेदन कर रहा है, पगडंडी का रास्ता रोके सिवान बरजोरी कर रहा है, फागुन के प्रीत भरे उत्सव में कामायनी, साकेत से रंगों भरा संवाद कर रही है, गुलाल से भरे बादल पृथ्वी के चेहरे को रंग रहे हैं।


                प्रकृति के इस विराट महोत्सव को समकालीन गीत अपनी रचनाधर्मिता में निरंतर अभिव्यक्त कर रहा है। गीत अपने मिथकीय प्रयोगों में युगीन यथार्थ आधुनिक युगबोध, लोक चेतना के कठिनतम प्रश्नों से जूझता, मुठभेड़ करता हुआ, जीवन संघर्ष की वर्गीकृत सच्चाई के साथ मनुष्य की मक्तिकाजी चेतना का संवाहक भी बनता है। कविता वह चाहे छंद में लिखी हो या मुक्ताछंद में, यदि वह विचारों की दुनिया को समृद्ध बनाती है, तो मनुष्यता सदैव उसकी ऋणी रहेगी, गीत विचारों की दुनिया को उद्वेलित कर रहा है उसे पुख्ता बना रहा है। मनुष्य एवं मनुष्यता के पक्ष में संघर्षरत है, जो संघर्षरत है, वह जीवित है, समकालीन कविता में गीत की बहुचर्चित ऊर्जावान वैचारिक भरी उपस्थिति इसका जीवंत प्रमाण है। 


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