स्तम्भ : गीत-गंध --पहला अन्तरा / अप्रैल-सितम्बर 2020/18


 


आधुनिक हिन्दी गीत का एक सशक्त हस्ताक्षर -विनोद 


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रेत से लिखो या जलधार से लिखो


ये मेरा नाम है इसे प्यार से लिखो।


 अपने अनूठे अंदाज़ और राग से गीत विधा में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले डॉ. विनोद निगम का नाम साहित्यानुरागियों एवं रचनाकारों के हृदय में लम्बे समय से बहुत प्य सम्मान के साथ अंकित है। 10 अगस्त 1944 को उ.प्र. के बाराबंकी में जन्मे विनोद निगम ने प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा उपरान्त नर्मदा तट के पवित्र अंचल में बसे होशंगाबाद को अपनी कर्मस्थली बनाया और यही पावन भूमि उनकी सृजनस्थली भी बनी'जारी हैं यात्रायें लेकिन,''अगली सदी हमारी होगी' और 'मौसम के गीत' संग्रहों के साथ वे पिछले दशकों से सृजन यात्रा में निरन्तर गतिमान हैं। वैसे तो कविता के कोमल अंकुर कविमन में बचपन से ही प्रस्फुटित होने लगे थे, कई नवाँकुर नव पल्लव और पातों के साथ साहित्याँगण में अपनी सुगन्ध और सौन्दर्य बिखेरते हुये लहलहाने भी लगे थे। इस दरमियान उनके गीत कादम्बिनी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में भी प्रकाशित हुये, पर इस युवा कवि को पहचान और प्रतिष्ठा मिली सन् 1966 में ज्ञानोदय' के नई कलम विशेषांक' में प्रकाशित उनके गीत-'क्योंकि शहर छोटा है।' से।


खुल कर चलते डर लगता है ,बातें करते डर लगता है ,क्योंकि शहर छोटा है।  


 डॉ. विनोद निगम उस पीढ़ी के कवि हैं, जब गीत अपने अस्तित्व को बचाने के लिये समय के साथ करवट बदलते हुये अपने आंतरिक और बाहय परिवर्तनों के दौर से गुज़र रहा था, गीत के इस परिवर्तित और परिष्कृत स्वरूप को जिन रचनाकारों ने अपनी कलम में सहेज और समेट कर उसे संरक्षित और स्थापित करने में महती भूमिका निभायी। उनमें एक प्रमुख नाम डॉ. विनोद निगम का भी है। वे डॉ. शम्भूनाथ सिंह द्वारा सम्पादित 'नवगीत दशक तीन' के गीतकार हैं। डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने इस युवा कवि की प्रतिभा को पूर्व में ही परखते हुए अपनी सम्मति व्यक्त की थी, विनोद निगम एक प्रखर और सिद्ध गीतकार हैं। तमाम बिना रीढ़ की हड्डी वाले कवियों के बीच, अपनी अलग से राह बनाकर चलने वाले इस कवि ने कवि सम्मेलनी लिजलिजे गीतों के रचनाकारों से भिन्न अपनी स्वतंत्र पहचान बनायी है। विनोद निगम आगे आने वाले वर्षों में गीत की धारा को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेंगे। डॉ. विनोद निगम का रचना संसार एक 'कोलाज' के समान है, इसके कई रंग और कई रूप हैं, किसी एक पक्ष से इनको परखना बेमानी है, उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफ़र किया है, उनकी कविता इसी सफ़र की दास्तान है, जिसमें कहीं धूप है कहीं छाँव है, कहीं शहर है, कहीं गाँव है। इसमें घर, रिश्ते प्रकृति और समय अलग-अलग किरदारों के रूप में एक ही कहानी सुनाते हैं, उन्होंने अपनी कथनी और करनी की दूरी को अपने शब्दों से कम किया है और वही लिखा है, जो जिया है।


और नहीं, भीड़ भरा यह सूनापन


आओ, घर लौट चलें, ओ मन


आमों में डोलने लगी होगी गन्ध,


टेसू के दरवाज़े होगा यौवन।


आओ घर लौट चलें ओ मन।


                उनके गीतों में जहाँ उनका परिवेश, प्रकृति, समय, समाज बड़ी सहजता से उपस्थित रहता है, वहीं सामाजिक विसंगतियों के प्रति व्यंग्यात्मक चुटीलापन भी मौजूद हैसहजता और सरलता उनके व्यक्तित्व की तरह उनके गीतों की प्रमुख पहचान है। कविता के लिये उन्हें किसी मानसिक व्यायाम या ज़द्दोजहद की ज़रूरत नहीं पड़ती। वह तो उनके साथ-साथ सफ़र करती है और कभी भी शब्दों में उतर आती है, क्योंकि वे सहजता और सरलता को श्रेष्ठ कविता की कसौटी स्वीकारते हैं--  


नहीं ढूंढ़ कर लाना पड़ता, ना सपनों में जाना पड़ता


शास्त्र ग्रंथ की नहीं ज़रूरत, सुबह शाम का नहीं मुहूरत।


 भीड़-भाड़ में मिल जाती है, गलियों सड़कों खिल जाती है।


पीड़ा में निखरी रहती है, आस-पास बिखरी रहती है


अनायास ही आ जाती है, मन प्राणों में छा जाती है


प्रश्न नहीं है, हल है कविता, निर्झर बहता जल है कविता।


जितने सहज सरल तुम होगे, कविता उतनी श्रेष्ठ लिखोगे।


              सहजता और सरलता के साथ ही उनकी रचनाओं में अनुभूतियों की गहराई और संवेदनाओं की आँच सर्वत्र विद्यमान है, उनमें सच्चाई की एक ऐसी चमक है, जिसे अभिव्यक्त करने के लिये किसी शब्द कोश को गढ़ने की ज़रूरत नहीं वे स्वतः ही हृदय से हृदय तक की यात्रा तय कर लेती है --


बहरी आवाज़ों के घेरे, ध्वनियों को छोड़कर अँधेरे 


गीतों के गाँव चले आये, हम नँगे पाँव चले आये।


सड़कें थीं, सड़कों में घर थे, कोलाहल से भरे सफ़र थे।


हम थे सूखे पेड़ों जैसे, जंगल से जल रहे शहर थे।


छोड़ सुलगते सवाल सारे, सारे संबंध रख किनारे।


अपनी चौपाल चले आये, यूँ अपने ठाँव चले आये।


            प्रकृति और पर्यावरण उनके गीतों में प्रमुखता से मौजूद है। एक ओर जहाँ वे प्रकृति की उदात्तदानशीलता के प्रति कृतज्ञ होते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रदूषित होते पर्यावरण को लेकर उनमें गहरी चिंता और क्षोम है। हरे-भरे जंगलों को निहारते हुये उनका मन आश्वस्ति से भर उठता है-- 


घने, पत्र भरे वृक्ष, छोटे, छरहरे वृक्ष 


दृष्टि तुम्हारी, सब पर हरी रही जंगल


छू न सकी सभ्यता तुम्हें, तुम कितने सुखी रहे जंगल।


              लेकिन वही मन विलुप्त होती गौरैया के लिये बच्चों सा तड़प उठता है और तड़पते मन की यही पीड़ा एक कोमल और हृदय स्पर्शी गीत के रूप में प्रकट होती है।


आओ चिड़ियों, तुमने तो घर आना छोड़ दिया,


रूठ गई क्यों, मेरी छत का दाना छोड़ दिया।


कविता की रसधार प्रथम, तुमने ही घोली थी,


पीर तुम्हारी वाल्मीकि के मुख से बोली थी


रहती थी, तुम सदा मायके, छज्जों, मुंडेरों, 


भले पराये घर जाती, बिटिया की डोली थी।


आते नहीं काग तक अब तो पितर पक्ष में भी,


तुमने भी घर छोड़ा दूध मखाना छोड़ दिया। 


     साहित्य मात्र मनोरंजन के लिये नहीं है, यह जनभावनाओं का प्रतिबिम्ब है, जिसमें समाज के चेहरे की एक-एक खरोंच को देखा जा सकता है, आम आदमी के आँसू, चिंता, दर्द की संवेदनात्मक प्रस्तुति साहित्य का सबसे बड़ा दायित्व है। युगबोध के बिना वह एक ऐसे सतरंगी इन्द्रधनुष की भाँति हैं, जो देखने में तो मोहक है, पर उसका अस्तित्व मूलरूप से अर्थ विहीन है। इस दृष्टि से विनोद निगम अपनी रचनाधर्मिता से स्वयं को सिद्ध करते हैं, सामाजिक विसंगतियों को वह बड़ी सूक्ष्म और पैनी दृष्टि से देखते-परखते हैं और समाज के सामने अपने गीतों के माध्यम से रखते हैं। वे सच्चाई को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वह तीखी तेज़धार बनकर सीधे हृदय में वार करती है। उनकी कविता में यह व्यंग्यात्मक पुट स्वतः ही आता है--


बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की, न्यारी है तहज़ीब यहाँ की 


जिनके सारे काम गलत हैं. सुबह ग़लत है, शाम ग़लत है


उनको लोग नमन करते हैं।


             वर्तमान समय में समाज की हर चीज़ अपने स्थान से खिसकी हुई है, सम्मानितों का लगातार अपमान हो रहा है, प्रतिभा, ज्ञान, विद्वता, विवेक, परिश्रम, निष्ठा और हर प्रकार की अच्छाई का तिरस्कार और उपेक्षा हो रही है, अपराधी और चाटुकार महिमामंडित हो रहे हैं, ईमान धरम सब बिकाऊ हो गया है, जिससे कवि मन द्रवित है, परंतु निराश नहीं है, उसे विश्वास है कि भले ही देर से, परंतु सच्ची प्रतिभा को समाज में सम्मान और स्थान अवश्य  मिलेगा, वे उन प्रतिभाओं के आत्मविश्वास को टूटने नहीं देते हैं और स्वयं के माध्यम से संदेश देते हैं। उनका यह गीत राजनीति और भ्रष्ट व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है।


नाम तुम्हारे अलंकरण हैं, सिद्ध तुम्हें सब वशीकरण हैं।


सिरहाने सब पुरस्कार हैं, चरणों में सब चमत्कार हैं।


सत्ता प्रतिष्ठान की नज़रों, तुम से सर्जक कम ही होंगे,


लेकिन लोगों की जुबान पर, सदियों सदियों हम ही होंगे।


 सहस्त्राब्दियों बाद चलेगी, चर्चा जब जन मन के कवि की 


कोई नाम नहीं सूझेगा, सिर्फ विनोद निगम ही होंगे।


                   प्रेम सृष्टि का मुख्य तत्व है, और सृजन के हर स्वरूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपस्थित रहता है। विनोद जी के गीतों में प्रेम का यह रंग प्रकृति के साथ एकाकार होकर उभरता है, और उन्हीं प्रतीकों और बिम्बों के सहारे अपना आकार ग्रहण करता है। बदलते मौसम की छटा जहाँ बाह्य जगत के वातावरण को ख़ुशनुमा बनाती है, वहीं मन की ज़मीन को भी आल्हादित और रस सिक्त कर देती है। रेत की तहों में दबी कोमल भावनाओं की तरंगे स्वत: स्फुरित हो उठती हैं।


          बँध न पाई, निर्झरों की बाँह/उफनाई नदी 


           तटों से मुँह जोड़, बतियाने लगी है।


          निकल जंगल की भुजाओं से/एक आदिम गन्ध


            आँगन की तरफ आने लगी है।


             आँख में आकाश की, चुभने लगे हैं 


            दृश्य शीतल, नेह-देह प्रसंग के


            आ गये दिन धूप के सत्संग के।


            लेकिन वहीं दूसरी ओर आज की मशीनी ज़िन्दगी में मौसम के रंगों को महसूसने और जीने का वक्त कहाँ है? ज़रूरतों के बोझ तले दबी ज़िन्दगी के पास अवकाश केदो पल नहीं हैं, जो मौसम केसाथ गुज़ार सकें। ये पीड़ा कवि मन को गहरे तक कचोटती है।


                फूल में, हवा में, जाने कितने रूप में,


                बादल में, बादल से छन आई धूप में


               मौसम तो लिखा हुआ है किताब सा


              पढ़ने की फुरसत का इन्तज़ार है


               छोड़ गई मौसम से काट कर हमें


               रोटी में कितनी तेज़ धार है। 


सच्चा और वास्तविक 'गीत' वही है, जो जिन्दगी के साथ चलता है, ज़िन्दगी के सम्बन्ध, संदर्भ, कठिनाईयों और चुनौतियों को देखकर भागता नहीं, बल्कि खुलकर हाथ बँटाता है, प्रेरणा देता है।


          निरन्तर संघर्षों का सफ़र तय करते हुये एक मध्यम वर्गीय आम आदमी जब समय की तराजू में अपनी उपलब्धियों को तोलता है, तो उसके हिस्से में सिर्फमुट्ठी भर धूप आती है। जिसे वह जीवन- विवशता या नीयत समझकर स्वीकार करने को मजबूर होता है-


'मुट्ठी भर धूप और दालान भर अँधेरे, यही बस पास बचा मेरे'


              आम आदमी के संघर्षों की व्यथा कथा को बयान करती विनोद जी की इन पंक्तियों को कीर्तिशेष श्री कन्हैया लाल नन्दन ने श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन की भूमिका में कोड करते हुए लिखा है-'विनोद निगम के एक गीत का मुखड़ा है, जो समकालीन जीवन की विषमताओं के बीच मध्यम वर्गीय व्यक्ति की अन्तर्व्यथा को सीधे, फ़ोकस में लाता है, उसमें जीवन दायिनी धूप और कठिनाईयों के अँधेरों का अनुपात देखें।'


          विनोद निगम जी के गीतों का मुख्य आकर्षण उनकी सहजता और सरलता है, झरने की तरह कंठ से स्फुरित ये गीत उनकी अन्तरात्मा के स्वर हैं, जिन्हें वे गीत का आवरण पहनाकर प्रस्तुत करते हैं। 


               सम्प्रेषणीयता कविता का सहज गुण धर्म है, भाषा इस धर्म और गुण की वाहक है, प्रवाह ऊर्जा की लय है, भाषा के साथ लय भी गीत का मुख्य अंग मानी जाती है, इस कसौटी पर निगम जी के गीत पूरी तरह खरे उतरते हैं, उनके गीतों की भाषा भावानुकूल और प्रवाहमयी हैविनोद जी की लेखनी ने मुख्य रूप से गीत विधा की ही साधना की है. पर प्रयोग या शौक के रूप में अन्य विधाओं को भी माध्यम बनाया है। उनकी रचना की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -


                 कमरों से आँगन तक चल के आये दिन धूप की ग़ज़ल के। 


                  अर्थ फिर लगे मन को छूने गन्धों के, फूल के, फ़सल के। 


             किसी भी रचनाकार को पूर्णरूप से समझने के लिये उसके 'व्यक्ति' और 'सृजन' दोनों पक्षों को जानना आवश्यक है, वस्तुतः रचना के माध्यम से रचनाकार स्वयं को ही अभिव्यक्त करता है, उसके अन्त:करण में उपस्थित स्मृतियाँ, विभ्रांतियाँ, कल्पनायें संवेदनायें, संस्कार, विचार, दृष्टि और जीवन मूल्य ही धूप-छाँव की तरह काया और कलेवर बदलकर प्रकट होते हैं, कुछ ऐसे भी अपवाद हैं, जिनके रचित और चरित में साम्य नहीं होता।


          पर यदि हम बात विनोद निगम की करें तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में आइने की तरह एक पारदर्शी संयोजन है, वे अपने नाम के अनुरूप ही विनोदी और अलमस्त हैं, उनका यही फ़कीराना और कबिराना अन्दाज़ उन्हें उनके चाहने वालों और मित्रों के बीच लोकप्रिय और हृदयग्राही बनाता है, मित्र उनके लिये जीवन की सबसे 


बड़ी  पूँजी है, जिनके नाम वे सारी उम्र समर्पित कर चुके हैं, 


आये कुछ घर परिजन, रिश्तों के काम


ये सारी उम्र गई, मित्रों के नाम 


नीम छाँह, तपन कहीं शिखर कहीं कूप


दृश्य सभी नहीं देखे, मन के अनुरूप


मित्रों ने सरल किये जीवन के समीकरण


ठिठुरन, कुहरे में घोली मीठी धूप 


पूजन, अर्चन, वन्दन, आरती, हवन 


बतरस में मित्रों के तीरथ व्रत धाम। 


      जब  ज़िन्दगी एक यक्ष प्रश्न बनकर सामने खड़ी हो, चारों तरफ अनिश्चितता और निराशा का माहौल हो, तब जीवन की तमाम विसंगतियों को देखते हुये, उनसे गुज़रते हुए स्वयं को संयत बनाये रखना चुनौती भरा कार्य होता है। पर वे इस चुनौती को स्वीकारते हैं, वे निराशाओं और कुंठाओं को ओढ़ते और ढ़ोते नहीं हैं, वरन उनको झटक कर जीने का रास्ता निकालते हैं --


मूल्य हैं रसातल में, दाम हैं कँगूरों पर, समझदार चुप हैं, सब भार है लँगूरों। 


पर यक्ष प्रश्न, 'कैसे ये बड़ी उमर जी जाये' छोड़ो उलझन सारी, चलो चाय पी जाये।  


          विनोद निगम के लिये मित्र केवल वार्तालाप और सख-दख के सहभागी नहीं है. वरन वे उनके गीतों के पात्र हैं, और अपने नाम के साथ उपस्थित दिखाई देते हैं, उनके कई गीत मित्रों से मुखातिब है-तपी सड़क में पाँव जला लेते जब 'माहेश्वर' या 'यश! तुम कितने गीत लिख रहे।' और 'नया गीत रचना है, और गुनगुनाना है, भाये मन को तो राकेश को सुनाना है। इस समय चल रहे 'कोरोना' महामारी के लॉकडाउन पीरियड में भी वे कुछ ऐसी ही पंक्तियाँ रचकर लोगों को सावधान कर रहे हैं -


चारों ओर बिछा सूनापन, बाहर उजड़ा है मौसम


घर ही रहो, विनोद निगम डॉ. विनोद निगम।


      इतने वर्षों बाद भी बाराबंकी की यादों से स्वयं को विलग नहीं कर पाते हैं, और बाराबंकी उनके तमाम गीतों में अपने पूरे परिवेश के साथ उतर आता है--


घर जिसमें बाबू रहते थे अम्मा रहती थीं, नानी, राजा रानी बुनी कहानी कहती थीं,


घर जिसमें चूल्हें पर पकती दाल महकती थी नाउन महरी चाची की कनबतियाँ चहकती थीं


सम्बन्धों की सूनी आँखों में भर आता है प्यार दुलार बड़े भइया सा भौजाई सा घर,


याद बहुत आता है ठंडी अमराई सा घर। 


   और अब समय के साथ-साथ यादों के इस कैनवास पर होशंगाबाद के जुड़ाव के रंग भी गाढ़े होकर उभरने लगे हैं           शैशव यौवन से जीवन संघर्ष तक


          नगर जुड़ा प्राणों से, मन से, याद से


          प्रभु न भेजना कहीं होशंगाबाद से।


           विनोद निगम की रचनाधर्मिता की विवेचना करते समय जो मुख्य तत्व हमारे सामने प्रकट होते हैं, उनमें पहला भोगी हुई संस्कृति, जीवन मूल्य, प्रकृति, सामाजिक मूल्य और मानव मन की स्थिति है और दूसरा वर्तमान संदर्भो में बदलते सामाजिक और राजनैतिक मूल्य । इन्हीं दोनों तथ्यों को जोड़कर अनुभूति को बिना किसी कृत्रिमता के उन्होंने गीतों में प्रस्तुत किया है।


       विनोद निगम का रचनाकर्म एक अनवरत यात्रा है, बाहय यात्रा के साथ अन्तर्यात्रा का क्रम निरंतर चलता रहता है, जिसे वे 'जारी है यात्रायें लेकिन' संग्रह की भूमिका में स्वीकारते हुये लिखते हैं-'गीत मेरे लिये यात्रा होते हैं, अपनी तमाम थकान, कष्ट व कठिनाइयों के साथ जिसमें दृश्यों के बदलते रहने का आनंद भी शरीक होता है। इस यात्रा में धूल, पानी, हवा, अँधेरा, धूप, मकान, गलियाँ, सड़कें, कारखाने, आफ़िस या फाइलें वा उनमें दबते-निकलते हये लोग सभी शामिल हो जाते हैं मेरे साथ। जहाँ कहीं रुकता हूँ, अकेला पाता हूँ अपने को, किंतु आगे मार्ग में इन सबके मिलने का सुख फिर यात्रा में खींच लेता है और मिलने बिछुड़ने का क्रम चलता रहता है।' 


     'जारी है यात्रायें लेकिन' पर लिखे अपने समीक्षात्मक आलेख में 'श्री प्रेमशंकर रघुवंशी' ने उन्हें गीत प्रदेश का बोनाफाइड कहा है। साथ ही वे लिखते हैं कि मैंने विनोद को न तो गीत की किसी सिमटी सिकुड़ी धारा से जोड़ने का प्रयत्न किया है और न ही उन्हें किसी खास आंदोलन के गीतकारों की पंक्ति में नगीने सा जड़ा है, वह हिन्दी गीत की कालजयी परम्परा से जुड़ा एक लम्बी बिरादरी का बाशिन्दा है।


विनोद निगम आज भी पूरी तन्मयता से सृजनरत हैं और उनकी गीत यात्रा के कई सोपान अभी शेष हैं।


 हिन्दी गीत को आज भी उनसे महती अपेक्षाएँ हैं। वे स्वस्थ, प्रसन्न और दीर्घजीवी होकर समय की शुष्क रेत पर अपने रससिक्त गीतों के चिन्ह अंकित करते हुए अपने अनुगामियों का मार्ग प्रशस्त करते रहें, यही कामना है।


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-6, साँई पैलेस, साँई हिल्स,


कोलार रोड, भोपाल (म.प्र.)


462042 मो.- 098931 04204