<no title>सम्पादकीय पहला अन्तरा / अप्रैल-सितम्बर 2020 / 3





'कोरोना' ने दुनिया में उथल-पुथल मचा दी। हमने जीवन में महामारी के कई प्रकोप देखे, लेकिन कभी भी किसी व्याधि ने सारे विश्व को प्रभावित नहीं किया। इतने ख़तरनाक तो दोनों विश्वयुद्ध भी नहीं रहे, वे भी कुछ गिने चुने देशों के बीच लड़े गये। बाकी देशों पर प्रभाव इतना अप्रत्याशित नहीं रहा। मार्च मध्य से हम ऊहापोह की स्थिति से गुज़र रहे हैं। देश में आम आदमी की दिनचर्या ही बदल गई। कोरोना से प्रभावित भय ने हमारी जीवन शैली ही बदल दी। साहित्य भले ही अब समाज का दर्पण न रहा हो, किंतु वह एक व्यसन की तरह हम साहित्यकारों की दिनचर्या का हिस्सा तो है ही। सारी साहित्यिक गतिविधियाँ लगभग ठप्प । पुस्तकों और पत्रिकाओं के प्रकाशन पर लगभग पूर्ण विराम । कहते हैं कि पानी अपना धरातल स्वयं तलाश कर, उसी रूप में अपना आकार ग्रहण कर लेता है। अभिनव इमरोज़ पत्रिका के सम्पादक बहल साहिब से फ़ोन पर चर्चा में उनने बताया कि पत्रिका का नया अंक पी.डी.एफ. बनाकर उनने नेट पर डाल दिया है। अनेक पत्रिकाएँ या तो नेट पर उपलब्ध हुईं या उनके संयुक्तांक निकले। 'पहला अन्तरा' का जनवरी-मार्च अंक हमने समय पर प्रकाशित किया और उसके बाद लॉकडाउन में फँस गये। अप्रैल-जून 20 का अंक नहीं छप सका, पी.डी.एफ. वाली बात हमें जमी नहीं। वैसे ही साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठक बहुत कम हो गये हैं और फिर नेट पर पढ़ने वालों की तादाद का अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है। अंक निकालने का विचार भी बनाया, तो डाक घर वालों ने हाथ खड़े कर दिये। मेरे कार्यालय में माह में लगभग बीस-पच्चीस पत्रिकाएँ आती हैं, पिछले पाँच महीनों में मात्र पन्द्रह पत्रिकाएँ आई हैं, फिर भी साहस करके यह अंक संयुक्ताँक के रूप में (अप्रैल-जून एवं जुलाईसितम्बर-20) आप तक पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं, देखते हैं कितने पहुँचते हैं और कितने अंक डाक घरों के हवन कुण्डों में मोक्ष प्राप्त करते हैं।


            पिछले अंक की काफ़ी चर्चा हुई। नीरज का पृष्ठ पत्रिका की शान है, एक बड़ा पाठक वर्ग बेसब्री से इसका इंतज़ार करता है, प्रतिक्रिया देकर हमें उत्साहित भी। इस बार 'गीत स्मति' के अंतर्गत प्रस्तुत है, पं. रमानाथ अवस्थी का रचना संसार एवं वंगत गीतकार-रामावतार त्यागी पर केन्द्रित करेंगे। इसी प्रकार 'गीत गंध' में इस बार शामिल हैं। जाने माने गीतकार भाई विनोद निगम और आगामी अंकों में हम आपकी भेंट गीतों में लंबी पारी खेलने वाले कवि श्री कँवर बेचैन से करवायेंगे।


               साहित्यिक चर्चा के अंतर्गत हमारा विषय है, 'हिन्दी साहित्य, समाज के हाशिये पर-क्यों?' इस चर्चा में हम साहित्यकारों/पाठकों के विचार हर अंक में प्रस्तुत करते हैं। पिछली बार हमने नई कविता के जाने माने कवि राजकुमार कुम्भज और प्रोफेसर देवेन्द्र दीपक के विचारों से आपको अवगत करवाया था, इस अंक में और अधिक विस्तार से चर्चा के लिये, प्रख्यात आलोचक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, लेखक/पत्रकार योगेन्द्र शर्मा एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री मधुरेशनंदन कुलश्रेष्ठ के विचारों को हम आपसे साझा कर रहे हैं। पशुपतिनाथ जी के आलेख में उनका कथन है कि 'साहित्य में ठहराव का आना ही, उसके हाशिये पर आना है।' यह 'ठहराव' शब्द और ऐसे ही कई ज्वलंत प्रश्न विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं, जो 'पहला अन्तरा' से अपेक्षित है। पिछले दो-तीन दशकों में हिन्दी साहित्य के हाशिये पर जाने की स्थिति और अधिक विकट हुई है। कवि सम्मेलनों के माध्यम से जो कविता समाज को प्रभावित कर रही थी, वर्तमान में कवि सम्मेलनों की दुर्गति ने उसे और अधिक ठेस पहुँचाई है। फूहड़ हास्य और राजनैतिक विद्रूपताओं को चित्रित करती हास्यास्पद व्यंग रचनाओं ने इन साहित्यिक आयोजनों के प्रति जनता का मोह भंग कर दिया है। अब तो व्यंग्य में लोग कवि सम्मेलन को 'कपि सम्मेलन' कहने लगे हैं। कवि सम्मेलनों का नाम बदलने और ऐसे कार्यक्रमों में जिनमें हँसोड़ या भाँडनुमा लोग भाग लेने लगे हैं, इन्हें हँसोड़ सम्मेलन' या भाँड सम्मेलन' जैसे नामकरण की माँग भी शनैः शनैः सुनाई पड़ने लगी है। हिन्दी साहित्य की विधाओं की चर्चा करें, तो कहा जा सकता है कि काव्य' जो साहित्य की सबसे मानक विधा रही है, अब कुछ हद तक गद्य में प्रचलित विधाएँ उनसे बेहतर गतिशील हैं। हिन्दी कहानी आज के बदले हुये परिवेश को ज़्यादा प्रभावशाली तरीके से चित्रित कर रही है। जहाँ स्थापित कहानीकार चित्रा मुद्गल, मेहरुनिसा परवेज़, मालती जोशी, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री जैसे अनेक कथाकार अपने अपने स्तर पर आज भी लेखन कर रहे हैं, वहीं बाद की पीढ़ी में नीरजा माधव, पुष्पा मैत्रेय, राजेन्द्र केडिया, उर्मिला शिरीष, शरद सिंह, पुष्पा मुनीन्द्र, स्वाति तिवारी, इन्दिरा डांगी, ज्योत्सना प्रवाह, कुशाग्र मिश्र जैसे लोग कहानी में नई-नई सम्भावनाएँ तलाश रहे हैं। थर्ड जैंडर को लेकर नीरजा माधव और शरद सिंह का लेखन काफ़ी समय से चर्चा में है। 


            ___ हिन्दी गद्य साहित्य की अन्य विधाओं में भी समयानुकूल, सटीक और आकर्षित करने वाला साहित्य हम सब की नज़रों से गुज़र रहा है और खूब पढ़ा भी जा रहा है। गद्य साहित्य में व्यंग्य लेखन की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, किंतु आज उसने अपना उल्लेखनीय स्थान बना लिया है। फुटकर व्यंग्य तो द्विवेदी काल में भी लिखे जाते रहे, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, के.पी. सक्सेना जैसे लोगों ने इसे स्थापित किया और नरेन्द्र कोहली, सूर्यबाला, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जन्मेयजय, हरि जोशी, गिरीश पंकज, लालित्य ललित जैसे अनेकानेक व्यंग्य लेखकों ने इस लोकप्रिय विधा को और अधिक चर्चित किया एवं परिणाम स्वरूप आज इस विधा के पाठकों की बहुत बड़ी संख्या है। नरेन्द्र कोहली जी का नाम अलग से भी लिया जाना चाहिये, क्योंकि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और हिन्दी साहित्य में व्यंग्य और कहानी के अतिरिक्त रामकथा पर उनके शोध कार्य के लिये उनकी अपनी एक अलग पहचान है। जिस प्रकार कहानी वाचन परम्परा में पदमश्री मालती जोश जी का नाम उल्लेखनीय है, जो बिना देखे मंच पर कहानी पाठ करती हैं, उसी तरह गद्य व्यंग् को कवि-सम्मेलनों के मंच से श्रोताओं तक पहुँचाने का श्रेय सर्वप्रथम प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक स्वर्गीय के.पी. सक्सेना को जाता है, जिसे कई अन्य लेखकों ने आगे बढ़ाया। जिन में डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी का नाम उल्लेखनीय है।  


औद्योगिक क्रान्ति, वैश्वीकरण और आपधापी के इस युग में पाठकों के पास समयाभाव के कारण, लघु कथाओं का लेखन और पठन-पाठन भी ज़ोर-शोर से चल रहा है और कान्ता राय जैसे अनेक लगनशील ऊर्जावान लेखक/लेखिकाएँ इस विधा को मज़बूती से स्थापित करने में प्रयासरत हैं और पाठकों द्वारा उनका नोटिस भी लिया जा रहा हैगद्य साहित्य का उपरोक्त ब्यौरा देने का मेरा उददेश्य यही है कि हम जो साहित्य समाज के हाशिये पर होने की चर्चा करते हैं, उसमें सबसे ज़्यादा प्रभावित कविता हुई है। आज ना कविता का पाठक है ना श्रोता। कहानियाँ, व्यंग्य और उपन्यास आज भी खूब लिखे और पढ़े जा रहे हैं और ज़ाहिर है कि इनकी पुस्तकें बिक भी रही हैं, इन्हें प्रकाशक भी मिल रहे हैं। इंटरनेट, टी.वी., बाज़ारवाद आदि ने तो अपना असर छोड़ा ही है, किंतु फिर भी हिन्दी कविता की इस दुर्दशा के लिये कवि स्वयँ भी काफ़ी ज़िम्मेदार है। इतिहास गवाह है कि साहित्य, संगीत एवं सभी कलाएँ सदैव राजाश्रय में पल्लवित पोषित हुई हैं। आज हमारे देश में वह स्थिति नहीं है। साहित्यकारों, संगीतकारों एवं अन्य कलाकारों को अपनी आजीविका का प्रबंध स्वयँ करना पड़ता है, फलस्वरूप साहित्य, संगीत और सभी कलाएँ व्यापार का अड्डा बन गई है। कवि सम्मेलनों में अब कविता की जगह अर्थ-लोभ में चुटकुले परोसे जाते हैं। कवि सम्मेलन अब लगभग नौटंकी का स्वरूप ग्रहण कर चुके हैं और स्वस्थ अच्छी कविता का पाठक लगभग विलुप्त है। चर्चित विद्वान समीक्षक पशुपतिनाथ उपाध्याय केकथानुसार आज इन विषम परिस्थितियों में साहित्य में ठहराव आ गया है और ठहराव का आना ही साहित्य का हाशिये पर आना है। 


            पिछले दिनों देश के जाने माने शायर, राहत इन्दौरी का कोरोना ग्रस्त होने से उनके शहर इंदौर में निधन हो गया। राहत इंदौरी मुशायरों और कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय शायर थे। प्यार-मुहब्बत की शायरी के लिये वो जितने लोकप्रिय थे, अपने चन्द अशआरों की वजह से उतने ही विवादास्पद भी। उनकी एक पंक्ति है___हिन्दुस्तान क्या किसी के बाप का है'इसी प्रकार उनका एक ये शेर भी विवादों के घेरे में रहाहमारी पैबन्द लगी टोपियों पे मत जाओ. हमारे ताज अजायब घरों में रख्खे हैं। खेद है कि ऐसे ही कुछ संदेहास्पद कारणों से हिन्दुस्तान के इस मशहूर मुहब्बती शायर को रुखसत के समय उतना सम्मान नहीं मिला, जो उसकी शायरी के लिये अपेक्षित था।                    'पहला अन्तरा' परिवार राहत इन्दौरी की शायरी को सलाम करता है और अल्लाहताला से उनको जन्नत बक्शने की दुआ भी। कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से हम अप्रैल-जून अंक समय पर नहीं निकाल सके, अत: यह अप्रैलजून एवं जुलाई-सितम्बर का संयुक्तांक सादर प्रेषित है, इस आकांक्षा के साथ कि सदैव की भाँति आपका स्नेह और सहयोग हमें मिलता रहेगा एवं आपकी प्रतिक्रियाओं का हम बेसब्री से इंतज़ार करेंगे ...आदर सहित।



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